कहानी, व्यंग्य, कविता, गीत व गजल

Saturday, November 22, 2014

गजल
सदभाव बचाने निकला हूं

छुपे चेहरों की पहचान बताने निकला हूं |
रिसते जख्मों पर मैं मल्हम लगाने निकला हूं |

दुखों की आहट सुनकर व्यथित न होना कोई
इसलिए पीड़ा को गीत बना गाने निकला हूं |

भेड़ियों के आतंक से डरे हुए हैं लोग सभी
मै बेफ़िक्र सोते सिंहो को जगाने निकला हूं |

शिष्य भी महफूज नहीं गुरुओं के आवास में
ऐसे चेहरों से नकाब हटाने निकला हूं |

बस्ती-बस्ती आग लगा दी सियासतदारों ने
अब तो बचा-खुचा सदभाव बचाने निकला हूं |

हर नया दिन भोजन की थाली छोटी कर देता
लेकर भूखा पेट भजन सुनाने निकला हूं |

सारे शहर में मरघट सा सन्नाटा पसरा है
मै फिर से उसको जीवन लौटाने निकला हूं |

अरुण अर्णव खरे
गीत
मृगछोना मन

नीली गहराईयों में उभर आया प्रतिबिम्ब,
गुलाबी डोरों में बंध गया मृगछोना मन |

पहली नजर में ही
बीज प्रीति के अंकुरित हुए |
दिल की भाषा दिल ने पढ़ी
मन के भाव संप्रेषित हुए |
घट गए फासले सभी अपलक निहारते हुए
सांसों की उष्णता में हो गया सलोना मन |

उमंगों ने ले लिया फिर
इंद्रधनुषी आकार |
गगनचुम्बी सपनों को मिला
मनचाहा आधार |
इस उपकार का आभार व्यक्त कैसे करूं
सदा से चाहता था तुम्हारा ही होना मन |

अरुण अर्णव खरे