कहानी, व्यंग्य, कविता, गीत व गजल

Saturday, November 22, 2014

गीत
मृगछोना मन

नीली गहराईयों में उभर आया प्रतिबिम्ब,
गुलाबी डोरों में बंध गया मृगछोना मन |

पहली नजर में ही
बीज प्रीति के अंकुरित हुए |
दिल की भाषा दिल ने पढ़ी
मन के भाव संप्रेषित हुए |
घट गए फासले सभी अपलक निहारते हुए
सांसों की उष्णता में हो गया सलोना मन |

उमंगों ने ले लिया फिर
इंद्रधनुषी आकार |
गगनचुम्बी सपनों को मिला
मनचाहा आधार |
इस उपकार का आभार व्यक्त कैसे करूं
सदा से चाहता था तुम्हारा ही होना मन |

अरुण अर्णव खरे

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