कहानी, व्यंग्य, कविता, गीत व गजल

Saturday, November 22, 2014

गजल
सदभाव बचाने निकला हूं

छुपे चेहरों की पहचान बताने निकला हूं |
रिसते जख्मों पर मैं मल्हम लगाने निकला हूं |

दुखों की आहट सुनकर व्यथित न होना कोई
इसलिए पीड़ा को गीत बना गाने निकला हूं |

भेड़ियों के आतंक से डरे हुए हैं लोग सभी
मै बेफ़िक्र सोते सिंहो को जगाने निकला हूं |

शिष्य भी महफूज नहीं गुरुओं के आवास में
ऐसे चेहरों से नकाब हटाने निकला हूं |

बस्ती-बस्ती आग लगा दी सियासतदारों ने
अब तो बचा-खुचा सदभाव बचाने निकला हूं |

हर नया दिन भोजन की थाली छोटी कर देता
लेकर भूखा पेट भजन सुनाने निकला हूं |

सारे शहर में मरघट सा सन्नाटा पसरा है
मै फिर से उसको जीवन लौटाने निकला हूं |

अरुण अर्णव खरे

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