कहानी, व्यंग्य, कविता, गीत व गजल

Monday, June 8, 2015

गजल
कहीं मेरे जख्म सूख ना जाएं

मेरे छंद बुझे-बुझे से हैं, इनमे थोड़ी चमक डाल दे |
गुमसुम भी लगते है ये, इनमे चिड़ियों जैसी चहक डाल दे |

मैं पीढ़ा को गीत बनाकर गाता हूं इसलिए गुजारिश है
कहीं मेरे जख्म सूख ना जाएं, इनमे थोड़ा नमक डाल दे |

जितने लिखने वाले है, उनमें ज्यादातर बिकने वाले है
वे भी गीत अमर लिख डालें, ऐसा कोई सबक डाल दे |

खरी खरी कहने वालों की बातें सुनता नहीं जमाना अब
वे भी दिल में जगह बना लें, कमसिन उमर की लचक डाल दे |

तुमको लगता है मेरे गीतों में, गजलों में कशिश नहीं है
तू जो चाहे कर पर उनमे दीवानापन बेहिचक डाल दे |

मेरे शब्दों की खुशबू भी दिग-दिगंत में फेले मौला
तू इतनी इनायत कर दे, शब्दों में थोड़ी महक डाल दे |

अरुण अर्णव खरे

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